Saturday, July 23, 2011

हर रात सिमटकर, तुम्हारे जिस्म पे पड़ी एक चादर में तब्दील हो जाती है.
और जब चाँद, उसके रेशे-रेशे पर, पिघलकर बरसता है,
तो उसकी बेलौस सिलवटें, मेरे हाथों पे, लकीरों की तरह फ़ैल जाती हैं.

ये आयतें, जो मेरी हथेली पे नक्श हैं,
उनके हर हर्फ़ में, बस एक ही आवाज़ सुनाई देती है...
कोई मायना नहीं, कोई मजमून नहीं,
फखत, एक आवाज़.
जिसे कायनात का ज़र्रा- ज़र्रा दोहरा रहा है...
एक आवाज़.


मैं जब मुठी बंद कर लेता हूँ,
तो ये लकीरें, एक तावीज़ बन जाती हैं-
एक मासूम दुआ;
जिसे मेरे होठों ने, कभी तुम्हारे होठों के लिए गुनगुनाया था...
और तुमने मुझे छू कर कहा था...
कबूल है.
तुम्हारी गर्दन से लिपटने,
तुम्हारे सीने पे सर रखने को बेताब,
एक तावीज़.


और कभी-कभी यूँ भी होता है...
की आँखों के साहिल पे खड़ा काजल,
सूरज के साये की सुर्खी से पिघल कर बहने लगता है...
और मेरे जिस्म के उस पार,
तुम्हारी सांसों के हल्के थपेड़ों से
रफ़्ता-रफ़्ता फिसलती हुई
रात की ये चादर,
मेरी पलकों के कोने पे रुक कर,
अपने साए से लिपट जाती है.
और ठीक उसी वक़्त,
मेरे लब बरबस ही दोहराते हैं- एक दुआ.
एक आवाज़...
नींद के आगोश में,
जब तुम बुदबुदाते हो...
आमीन.