Monday, November 7, 2011

khat

ना जाने मैं ये ख़त तुम्हे क्यूँ लिख रहा हूँ... ना जाने वो कौन सी बात है, जो मेरे लब तुम्हारे कानों में फुसफुसा नहीं सकते. मेरे रुंधे से गले में अटकी सी हुई एक चीख... शायद तुम्हारे शानों की सरमायेदारी की मोहताज है... ना जाने कब वो मौसम मेहेरबान होगा... ना जाने कब सावन जायेगा... ना जाने कब आँखों के आइने में तुम झांकोगे... ना जाने कब मैं फिर से खो जाऊंगा, ना जाने तुम कब मिलोगे? इस जुबां में तुम्हारी तंगहाली का इल्म होते हए भी, तुम्हे इसीमें ख़त लिख रहा हूँ... इस जुर्म की जो भी सजा मुनासिब लगे, दे देना.

आज ना जाने क्यूँ, पुरानी दिल्ली के गुम्बद आँखों के सामने तैर रहे हैं... एक प्याली फिरनी की तड़प साल रही है, गुनगुनी धुप में लिपटी एक अलसाई दोपहर मेरे बदन पे रेंग रही है... डर लगता है, ना जाने किस लम्हा ये डंक मार देगी... ये ख़लिश भी जान्गुसिल है. खयालों का एक सिलसिला सा चल रहा है... यादों के कितने बंजारे आज यहाँ डेरा जमाने वाले हैं: किस्सागोई होगी, सारा दिन नज्मों की खुशबू से महकेगा, जाम टकरायेंगे, शेर पढ़े जायेंगे... और कल सुबह, जब इन तम्बुओं के सिरे खुलेंगे, और ये सब एक नए मुकाम की तलाश में निकल पड़ेंगे, तब मैं यहीं खड़ा रह जाऊंगा- तनहा!