Sunday, February 13, 2011

तुम्हारी उँगलियों के पोरों पे सूरज बैठ गया है...
जगमगाती हुई जुगनू सी मुझसे कहती हैं,
आज मुट्ठी जो हुई बंद, शाम ढल जाए?
मैं भी बेलौस बादलों कि तरह बढ़ता हूँ...
...अपने हाथों को तेरे हाथ पे यूँ रखता हूँ...
...कि इस चिराग में बादल का ये कपास कहीं,
तुम्हारे नूर के आगोश में ही जल जाए...

Friday, February 11, 2011

अलविदा...

सुन रहे हो न? ये बारिश का मद्धम संगीत? कानों को सहलाती, बूंदों की ये आहटें? और तुम्हारे जिस्म की रेत पे, मासूम इबारतें लिखती मेरी उंगलियाँ. इबारतें, जिन्हें वक़्त की एक लहर, यूँ मिटा देगी, मानो बस एक लम्हा पहले, यहाँ कुछ भी तो नहीं था. सच, कुछ भी तो नहीं था; कितना वक़्त बीता होगा? जब हम दो अजनबी, शहर के दो हिस्सों में बैठे... छोटे से एक रोशनदान से, एक दुनिया में झाँक रहे थे. कितनी अनजान है ये दुनिया भी, जिसकी सख्त दीवारों के दरमियाँ, जाने कितने और जहां बसते हैं, जाने कितने ख्वाब जिंदा रहते हैं? या कि ये दुनिया खुद एक ख्वाब है... और वो जो इसके बीच है, मगर इसका हिस्सा नहीं... वो हकीकत, क्या मालूम?
कितना वक़्त लगा था हमें? फखत तस्वीरो से मुलाक़ात का फासला तय करने में? कितना गैरज़रूरी रहा होगा वो वक़्त भी, क़ि मेरी याद की किताब ने मानों उस पन्ने पे स्याही फैला दी है. ये स्याह सर्द रात, उसी भूलने का हिस्सा है, या याद की एक और साज़िश, मालूम नहीं. मालूम तो खैर तुम्हारा नाम भी नहीं, तुमने कुछ बताया तो था शायद, पर इतने झूठे नाम सुन चूका हूँ, कि अब तो खुदा का नाम भी झूठा ही लगता है. सच है, तो बस इतना, कि इस वक़्त, एक अजनबी के साथ पिरोया हुआ मेरा जिस्म... तुम्हारी हर अनजानी छुअन, और मेरी हर अनसुलझी ख्वाहिश की ख्वाबगाह में तब्दील हो चुका है...ये जो कुछ भी है, इसका बीते हुए वक़्त से क्या वास्ता है, और आने वाले वक़्त से क्या ताल्लुक, क्या पता? इस एक लम्हे में... एक दास्तान है...
वो इश्क के सजदे करने वाले, न जाने इसे क्या नाम देंगे? इश्क तो क्या ही बुलाएँगे? जिनके खुद के कान, उनकी धड़कन नहीं सुन सकते... वो मेरी आहों में गूंजती रुबाइयों को क्या समझेंगे... कहाँ लिखेंगे? उनके कागज़... कलम... स्याही... सब ज़न्गज़दा हैं... और उनकी सारी दास्तान, एक झूठ. ये झूठ मेरे सच का बोझ क्या उठाएगा? उनकी नाज़ुक जुबां मेरे होंठों की एक सच्ची छुअन से छिल उठेगी. नहीं, रहने दो... ये एहसान भी क्या करना?
और जब एहसान की बात चली ही है... तो उनका ख्याल भी आता है... जिन्होंने अपने जिस्म और रूह के दरमियान फासले खड़े कर रखें हैं, चलो वो भी उन्हें मुबारक... मगर, वो भी तो मेरे इस लम्हे को न जाने कितने लफ़्ज़ों तले ज़मींदोज़ कर देंगे. वो खोखले लफ्ज़, जिनकी बाहों में, आजतक, एहसास का एक क़तरा भी नहीं रुक सका है... उसकी हवस मेरे आंसुओं के सैलाब से भी क्या ही बुझेगी? तो मैं उन्हें क्या कहूं? कि ये लम्हा... इसके हर गोशे में जो है... उसके लिए लफ़्ज़ों की दीवारें कितनी कमज़ोर हैं... और कितनी ठंडी... हाँ, कितनी ठंडी है ये दीवार... जिसे तुम्हारे हाथ मेरे जिस्म को छूने नहीं देते हैं... तुम्हारी आँखों में जो मैं देखता हूँ... उस जज्बे, उस मासूम रूहानियत का ये लम्हा... इसे क्या कहूं? कहाँ रखूँ? क्यों रोकूँ? इसका बीतना ही तो इसका होना है...
मेरे उठने से पहले... जो तुम्हारे होंठ... मेरे होंठों पे रखते हैं... उस मोहर से... मैं भले ही तुम्हारी मिलकियत न हो जाऊं... मगर इस रात के लिफाफे में... जो बंद हो गया है... उस ख़त का मजमून ही उसका पता है... अलविदा...