आज कल मेरे कमरे में कोई रहता है...
कभी औंधे पड़े जब आँख मेरी खुलती है
मैं उसे देखता हूँ सामने यूँ बैठे हुए
वो मेरे कांधे पे हर रोज़ अपने होठों से
बस कोई शोख़ इबारत सी लिखे जाती है...
और कभी रात भर मैं करवटें बदलता नहीं
यूँ मुझे लगता है वो पास कहीं सोती है
हैं उसके हाथ कहीं लिपटे मेरे सीने से
जैसे वो जिस्म मेरा रात भर सहलाती है...
मेरे हाथों से उसकी खुशबू भी जाती ही नहीं
रोज़ आ जाती है सफ़री, शरार-ए-सहरी सी
हरेक गोशे को मेरे जाने किस तवस्सुल से
नगहत-ए-गुल, नमूद-ए-शबनम तक महकाती है...
ये भी देखा है हमने बारहा बेखुद होके
जैसे कि ये विसाल बस कोई सुराब नहीं
आलम-ए-इज़्तराब, सेहरा-ए-मुहब्बत में
जब भी जाता हूँ उसकी याद चली आती है...
Tuesday, January 31, 2012
Thursday, January 19, 2012
untitled 2
नीली रोशनी में नहाये बदन,
क्या-क्या दास्तानें सुनाएं बदन.
महकी ख्वाहिशों का
एक लिबास है, उजास है;
जो उँगलियों के पोर से
फिसल-फिसल के पुतलियों
की सीप में बरस रही
हैं चूम कर,
मचल रहे दो लब कहीं.
है एड़ियों पे फिर रहा
वो रेशमी सी रात का
कोई सिरा, जो खुल गया
की बेखबर जो चाँद था
वो आसमान की नाव में
है डोलता मचल-मचल
बरस रहा पिघल-पिघल
वो खिड़कियों के रास्ते
यूँ तैरता है हर तरफ
कि हाथ बस बढ़ा सा लें
तो ओढ़ लें ये दो बदन...
ये दो बदन
जो एक हैं.
क्या-क्या दास्तानें सुनाएं बदन.
महकी ख्वाहिशों का
एक लिबास है, उजास है;
जो उँगलियों के पोर से
फिसल-फिसल के पुतलियों
की सीप में बरस रही
हैं चूम कर,
मचल रहे दो लब कहीं.
है एड़ियों पे फिर रहा
वो रेशमी सी रात का
कोई सिरा, जो खुल गया
की बेखबर जो चाँद था
वो आसमान की नाव में
है डोलता मचल-मचल
बरस रहा पिघल-पिघल
वो खिड़कियों के रास्ते
यूँ तैरता है हर तरफ
कि हाथ बस बढ़ा सा लें
तो ओढ़ लें ये दो बदन...
ये दो बदन
जो एक हैं.
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