Wednesday, April 25, 2012

आओ चलें

आओ चलें,
डूबते सूरज की आग से,
रात का लोहा पिघलाना है.
चाँद के पत्थर पे घिसना है,
एक हथियार बनाना है.
ये दरिया सो गया है,
खामोश है...
तूफ़ान जो आना है.

तुम्हारे और मेरे दरमियाँ,
जिस्मों के फासले क्यूँ है?
तुम कहते हो हम एक हैं,
फिर यूँ परे खड़े क्यूँ हैं?
हर रोज़ हमारी खाल पे,
एक रंग लगा देते हैं वो,
हर रोज़ एक नाम देते है,
और पहचान चुरा लेते हैं वो...
आज अब्र से अश्क कुछ यूँ बरसे,
कि धुल जाए जिस्म, तेरा भी- मेरा भी
न रह जाये कोई फासला
घुल जाये जिस्म, तेरा भी- मेरा भी...

क्या नाम है तुम्हारा
कुछ इल्म नहीं, कुछ याद नहीं...
कल ही तो तुम्हे देखा था,
कदम से कदम मिला कर साथ चलते हुए,
और आज कुछ 'अपनों' ने,
तुम्हे बाहर खड़ा छोड़ दिया है,
तनहा!
और अन्दर जश्न मनाने में,
कोई शर्म नहीं समझी.
हमने सोचा था, ये बराबरी कि जंग है,
हक़ की लड़ाई है...
मगर इस छोटे से घर में भी,
एक पूरी दुनिया पराई है,
वाह! कैसी बराबरी? क्या हक़?
कोई सुनवाई नहीं- फ़रियाद नहीं,
अंदर से सुलग रहा है लावा,
कुछ देर और सही,
शहर के शहर ढह जायेंगे...
... सैलाब वो आना है!

आओ चलें,
डूबते सूरज की आग से,
रात का लोहा पिघलाना है.

अंकुश गुप्ता











Friday, April 20, 2012

खोज

आज खोजते रहे हम,
सारा दिन, सारी रात...
तुम्हारे सीने की गर्माहट,
तुम्हारे कंधे, तुम्हारे हाथ.

पत्थर की एक गीली सड़क,
और उसके किनारे भीगते हुए,
मेरे माथे से पानी पोंछने के बहाने,
तुम्हारा मेरे गालों को सहलाना
दो प्याली चाय
तमाम उम्र के किस्से
बिन बात के बिगड़ना,
बात-बात पे बहलाना...

सारा दिन लेटे रहना...
यूँ ही, खामोश,
और फिर शिकायत करना,
'तुम कुछ कहते क्यूँ नहीं?'
यूँ ही लिपटे रहना,
और फिर उलझ जाना...
रात के चाँद से, सुबह के तारे तक,
कोई गुफ्तगू नहीं.

तुम्हारे बाज़ुओं से लिपट जाना
किसी तावीज़ की तरह
और बार-बार उन्हें चूम के,
तुम्हारे नाम का कलमा पढ़ना
तुम्हारे आगोश में बहते रहना
इस शहर के सैलाब में
तुम्हे छू के समझना,
ये सब सच है
तुम्हे थाम के, ख्वाब गढ़ना...

तुम्हारे जिस्म की हर तह, हर रेशा,
हर करवट, हर सिलवट
हर अंगड़ाई, हर मोड़
हर गोशा, हर हरकत,
हर ख़ामोशी, हर बात...
तुम्हारे सीने की गर्माहट,
तुम्हारे कंधे, तुम्हारे हाथ.
आज खोजते रहे हम,
सारा दिन, सारी रात.