दीवार में कहीं कहीं से तो अब ईंट भी झाँकने लगी थी; जैसे अरसा पहले किसीने चुनवा दिया था इसे, किसी मामूली जुर्म के एवज में, और तबसे यहाँ घात लगा के बैठी है, मानो अभी दीवार चीर के कमरे में दाखिल हो जायेगी. छत पे नक्श न जाने क्या क्या चेहरे- सीले हुए चेहरे. इस क़दर बिगड़े हुए की अब उन्हें पहचाना भी न जा सकता था, और फिर उसकी ज़रूरत भी क्या थी? जब तक हाथों में नोट हों, चेहरे देखने की क्या ज़रूरत?
कपास के खेत में चिंगारी की तरह, लेटी रही वो सूती साड़ियों के ढेर पे. फिर न जाने मन में क्या आया कि अलमारी खोल के अपनी बनारसी साड़ियों को निकालने लगी, ब्रोकेड वाली, रंग बिरंगी साड़ियां. एक पीली साड़ी पे नज़र पड़ी तो वो भी खिल उठी- जैसे अमलताश पे बहार आई हो. लिपट सी गयी, जैसे न जाने कबसे इस आलिंगन, इस स्पर्श की कामना में आंसू बहाए हों. उँगलियों से उसके रेशे रेशे को महसूस करती रही, जैसे किसी प्रेमी का शरीर हो. और किसी प्रेमी की ही तरह, वो साड़ी उसके गले, कंधे, कमर तक उलझती रही- सुलगती रही.
आँख खुली तो देखा, उसे- दरवाज़े के पीछे से झांकते हुए, कुछ यूँ कि वो नज़र ही नहीं आ रही थी. सिर्फ उसके पैर. दहलीज़ के उस पार, कसमसाते हुए, शर्माए हुए से. ‘हाय, कैसे रूखे हो गए हैं तुम्हारे पैर’, उसने कहा ‘इधर आओ- मैं तेल लगा दूं ज़रा.’ एक लम्हा असमंजस का, और फिर अधखुला दरवाज़ा कुछ यूँ खटका, कि जैसे अपना गला साफ़ कर रहा हो. एक हल्का सा आलाप लिया, और मुखड़ा दिखा दिया.
उँगलियों से टपकता रहा तेल, उसके पैरों पे... जब तक उसके मटमैले पैर सुनहले न हो गए. उन्हें हाथों में लेकर देखा- मुस्कुराई. ‘तो, चलूँ मैं?’ उसने कहा. दिल जैसे धक् से हो गया. क्या कोई तरीका नहीं? कोई बहाना नहीं? जिससे उसे रोक ले, बांध ले अपनी हथेलियों में, जकड़ ले अपनी उँगलियों से? ‘आलता लगवाएगी?’ ‘लाल-लाल? जैसे डूबता सूरज? ’ ‘हाँ... जैसा उगता हुआ, लगवाएगी?’. और वो फिर बैठ गयी, उँगलियों पे सूरज का रंग देखने की ललक में, जब तक खुद उसके पैर न जलने लगे. इस बार उठी तो कोई प्रलोभन, कोई उपाय काम न आया. वो आवाज़ लगाती रह गयी... पुकारती रह गयी. खड़ी रही थोड़ी देर, उसी तरफ, जिधर उसे देखा था जाते हुए. फिर मुस्कुराकर बैठ गयी, उसके ख्याल, उसकी याद में. उसका चेहरा, उसका स्पर्श, उसकी गंध... फिर मुस्कुराई. सामने वही पीली साड़ी पड़ी थी, जिसपे आलते से रंगे, उसके पैरों के निशाँ थे. उसने साड़ी को समेटा, और थोड़ी देर सीने से लगाया. फिर बड़े करीने से तह करके अलमारी में वापस रख दिया. शाम हो चली थी, बादल थक कर घर जा चुके थे, कमरे के बियाबान में उसकी आवाज़ गूँज उठी- ‘पग लागन दे.’
अंकुश गुप्ता