मेरी दराज का दरवाज़ा खटखटा रहे हैं,
एक जोड़ी काले झुमके
जो तुमने उतारे थे,
ताकि उसके हाथ
तुम्हारे बालों की झुरमुट के तले
तुम्हारे कानों में कुछ फुसफुसा सकें...
दो छोटी शीशियाँ,
एक खाली, एक अधभरी
साँसों को महकाते अत्र से
जिसकी भीनी भीनी खुशबू
रेंग रही है
बिस्तर पे, दीवारों पे...
बरस रही है, छत से
एक गुलदस्ता,
मेरी मेज़ पे, सोया है
तुम्हारे इंतज़ार में
या उसके,
जिसके हाथों को सहलाया था तुमने,
इसे देने के बहाने
और एक लम्हा,
जिसमें तुम दोनों की आवाज़ एक हो गयी थी,
तुम्हारे जिस्मों की तरह
क़ैद है,
चादर के एक पुलिंदे में...
कहो,
तो उसे खोल कर आज़ाद कर दूं?
ताकि वक़्त आने पे वो फख्र से कह सके...
हाँ उस दिन, जब दुनिया एक दूसरे को मारने पे अमादा थी,
मैंने देखा था उन्हें,
सिर्फ प्यार करते हुए...
उन दो औरतों को!
अंकुश गुप्ता
Wednesday, May 9, 2012
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment