बादल के हाथों,
न जाने कितनी बार तुम्हे खत भेजा है.
प्यासी पथराई आँखों की...
उम्मीद भेजी है.
सूखे होठों का,
चुम्बन भेजा है.
अगली बार,
जब बादल की हथेली से
मोती बरसते देखना...
तो याद रखना,
कि इस पार खड़ा कोई यक्ष,
तुम्हारा स्मरण कर रहा है.
इस खत पर,
धूप के सोने का पानी चढ़ा है,
और चाँद के चन्दन का लेप लगा है
रात के काजल का टीका...
ताकि तुम तक पहुँच सके
निर्बाध.
और सियासी रकीबों के कानों पर,
इसकी भनक तक न लगे.
डरता हूँ,
कहीं ये खत भी तुम तक न पहुंचा;
तो निर्वासन सहता मैं
न जाने किस कुबेर के शाप से,
न जाने किस रामगिरी पर भेज दिया जाऊंगा...
देशद्रोही कि तरह.
और मेरे खतों को,
ज़मीदोज़ कर दिया जायेगा,
हमेशा हमेशा के लिए
ताकि आने वाली नस्लें
मेरा नाम पढ़ सकें,
केवल सरकारी रजिस्टर में.
मेरा कसूर
सिर्फ इतना ही तो रहेगा न
कि मैं कुबेर को समय पर पूजा के फूल न दे सका?
राजतंत्र और लोकतंत्र में...
कुछ खास फर्क तो नहीं.
अंकुश गुप्ता
मई, २००८
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