Sunday, March 6, 2011

दोज़ख की अंगीठी से, कुछ गर्म धुआं रख ले...
मरने का हुनर देदे, जीने की अदा रख ले...
एहसान -ए- रकीबी कर, उस बंद लिफाफे से,
इक नाम हमें देदे, चाहे तो पता रख ले...
मौसम है परस्तिश का, सजदे भी ज़रूरी हैं...
तू नाम मोहब्बत का, चाहे तो खुदा रख ले.
इक लाल समंदर में, परछाईं है तारों की,
इस लाल सितारे को, आँखों में छुपा रख ले.
कहते हैं 'सिराज़' आसाँ, मरना है न जीना है...
ऐसे में हकीक़त का, कोई ख्वाब कहाँ रख ले?

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