Tuesday, September 6, 2011

याद है मुझे,
उस रोज़, सारी रात सीढ़ियों पे बैठे-बैठे
ज़िन्दगी बाँट ली थी हमने...
और सुबह सुबह,
तुम्हारी माँ की आवाज़ सुनकर,
... जब तुम भागी थी, बेतहाशा...
तुम्हारी नीली चप्पल टूट गयी थी,
वो टुकड़ा आज भी मेरी अलमारी के किसी कोने में,
रक्खा है,
और तुम आज भी सीढियां उतरते-उतरते रुक जाती हो...

मिट्टी के दालान पे,
बारिश के सौंधे बदन पे हाथ मलती...
जब तुम्हारी मेहँदी मुरझाने लगी थी,
तब उसमे रोशन, उन दो अल्फाजों में,
न जाने कितने नाम ढूंढ डाले थे हमने,
जबकि ये तुम भी जानती थी, और मैं भी...
की वो नाम एक ही था..
आज भी मेरे हाथ, तुम्हारी मेहँदी की तपिश से जलते हैं.

दरवाज़े की टेक लगा कर खड़ी,
न जाने किस उधेड़-बुन में तुमने...
अपनी पैरहन का रेशा-रेशा, उँगलियों से खोल डाला था...
और मैं चुरा लाया था उन्हें,
न जाने किस बदहवासी में...
आज देखता हूँ, तो उनमें बुनी हुई,
एक दास्तान नज़र आती है...
लफ्ज़ कितने जाया होते हैं कभी कभी,
ऊन के कुछ रेशों के सामने...

कभी कभी सोचता हूँ,
वो टुकड़ा, वो मेहँदी, वो रेशे...
तुम्हारे हाथ की वो तपिश,
तुम्हारे पैरों की वो आहट
कहीं महज़ मेरा ख्याल तो नहीं?
बारिश में पिघलता मेरा जिस्म,
दरवाज़े के किसी सीले हुए कोने में
नक्श तो नहीं हो गया कहीं,
तुम्हारा साया बनकर?
फिर सोचता हूँ,
कि हकीकत का एक क़तरा बेचकर,
तुम्हारे ख्याल कि मिल्कियत पाना...
इतना बुरा सौदा भी तो नहीं...

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