क्या चाहिए?- उसने कहा
सच ही तो है, क्या चाहिए मुझे?
दालान की काई को पैर से कुरेदते हुए,
खड़ा रहा...
यूँ लगा, सूरज मेरे सर से गुज़रकर,
पैरों तले बैठ गया है.
न जाने कितनी देर वहाँ खड़ा पिघलता रहा...
फिर हथेली में छुपाया हुआ कागज़ का एक टुकड़ा
उसकी जानेब बढ़ाते हुए
शायद पहली बार उसकी आँखों में देखा...
कागज़ की सिलवटों के साहिल पे
तैरती हुई स्याही में लिखी एक रुबाई,
जो न जाने कितनी बार दिल में दोहराई थी
मेरे कानों में पिघलते शरारे की तरह गिरी...
और मेरे हवास को बहा ले गयी...
होश आया,
तो उस ड्योढ़ी पे लिपटी हुई किसी बेल की तरह
खुद को खड़ा पाया...
क्या चाहिए? -उसने फिर पूछा
और क्या चाहिए था मुझे, इन चंद लम्हों के सिवा?
मुस्कुराकर कहा...
अब... कुछ नहीं.
Monday, October 3, 2011
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