Friday, March 2, 2012

जे. एन. यू.

एक रोज़,
पक्की सड़क पे चलते चलते, जब उकता सा गया
तो किसी अजनबी ने एक पगडण्डी दिखाई थी..
और कहा था...
कि यहाँ लोग अपने रास्ते खुद बनाते हैं.

ये वो वक़्त था,
जब सारी रात खाना मिलने पे पाबन्दी नहीं लगी थी...
क्यूंकि हम रात भर सोते ही नहीं थे.
जब वक़्त-बे-वक़्त आने वाले हमारे दोस्तों को,
सिक्यूरिटी वाले 'भैया' से जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती थी,
जब पी. एस. आर. पे लोहे का गेट नहीं लगा था...
जब दो पल की ख़ुशी के दाम नहीं देने पड़ते थे...
जब रात के दो बजे भी...
stadium की घास पे बैठकर,
हम गप्पें मार सकते थे.
शायद लोगों को याद नहीं होगा,
कभी ये जगह आजाद भी हुआ करती थी.

मगर आज आई कार्ड दिखाकर जब अन्दर जाता हूँ...
तो हर रास्ता अजनबी लगता है,
यूँ लगता है, जैसे न जाने किस लम्हे...
ये इमारतें, ये पत्थर, ये ढाबे
मुझे पहचानने से इनकार कर देंगे
और मेरे मैं होने का, सबूत मांगने लगेंगे.
उस दिन,
जब मैं एक कागज़ के टुकड़े से हार जाऊंगा,
तब क्या होगा?

पक्की सड़क पर भागते हुए मेरे कदम...
रुकते हैं किसी टी- पॉइंट पर जाकर,
एक घुप्प सन्नाटा महसूस होता है...
आखिरकार,
जे. एन. यू. सो जो रहा है.