आज जब आंख खुली...
न जाने क्यूँ बिस्तर
किसी वीराने में सोये हुए पत्थर की तरह
सर्द लगा.
एक सफ़ेद शॉल पश्मीने की
जिस्म पे फैली हुयी सी पाई,
और खिड़की के बाहर देखा
किसी दरवेश सा
नाचता हुआ- चाँद.
सब्ज़ मलमल के गलीचे में,
खुद को लिपटा हुआ पाया...
इस टीस, इस तसव्वुर,
इस मदहोशी का नाम सोचता रहा...
तभी कंधे पे,
तुम्हारे नाखूनों से उकेरे हुए,
बेमायाना हर्फ़
बोल पड़े...
Tuesday, October 11, 2011
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